दया करना विधाता हे, खड़े हम द्वार पे तेरे।
दुआ माँगे मिटे विपदा,मिटा अब काल के फेरे।
तबाही देख दुनिया में,नहीं अब चैन आता है
हरो संकट सुनो स्वामी,मिटा दो कोप के घेरे।
शिवा शंकर हरी भोले,बता ये भेद कैसा है।
मचा ये मौत का तांडव,प्रलय के मेघ जैसा है।
चला है युग अँधेरे को,नहीं अब रोशनी दिखती।
धरा की आह से प्रभु ने,रचाया खेल ऐसा है।
नहीं डर के भला होगा, तरीका सोचना होगा।
नहीं वन और काटेंगे,अभी वृक्ष रोपना होगा।
मचा संसार में रोना,जहाँ देखो तबाही है।
उगाया बीज नफ़रत का,वही अब भोगना होगा
मिटाना द्वेष जीवन से,तभी फूले फले धरती
खिले बगिया भ्रमर डोले,महक जीवन सदा भरती।
समय की माँग कहती है,मनुज अब खोल लो आँखें।
बचे जीवन हँसे जगती,खुशी की कामना करती।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-06-2020) को "वक़्त बदलेगा" (चर्चा अंक-3728) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
समय की माँग कहती है,मनुज अब खोल लो आँखें।
ReplyDelete- बहुत ज़रूरी है.
हार्दिक आभार आदरणीया
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ReplyDeleteनहीं वन और काटेंगे,अभी वृक्ष रोपना होगा।
सुन्दर सन्देश
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteनहीं डर के भला होगा, तरीका सोचना होगा।
ReplyDeleteनहीं वन और काटेंगे,अभी वृक्ष रोपना होगा।
मचा संसार में रोना,जहाँ देखो तबाही है।
उगाया बीज नफ़रत का,वही अब भोगना होगा... क्या लाजवाब बात कही आपने अनुराधा जी, ये जीवन और मनुष्य की आदतें बुमरैंग की तरह हैं तभी तो हम ये कह पा रहे हैं
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसुंदर मुक्तकों के द्वारा सुंदर सरस सार्थक सृजन सखी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
हार्दिक आभार सखी
Deleteअद्भुत रचना ,बेहतरीन ,लेखनी को नमन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसुन्दर सन्देश ,......बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार जोया जी
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