Saturday, May 30, 2020

भरो झोली विधाता (मुक्तक)

1222 1222 1222 1222
भरो झोली विधाता हे हरो पीड़ा महा दानी।
छिनी रोजी बढ़ी चिंता गली की खाक है छानी।
चले हैं गाँव को रोते,छिना हमसे ठिकाना भी।
कहीं टूटी हुई चूड़ी बहा आँखों भरा पानी।

 दिया रूखा सही भोजन,नहीं कड़वे वचन बोलो।
नहीं देना मदद कोई, विषैले रंग मत घोलो।
हुआ कुछ भी नहीं हासिल,न कोई आस है दिखती।
चले हम गाँव को पैदल, नहीं अपने नयन खोलो।

जलाती है हमें गर्मी पड़े पग में बड़े छाले।
पड़ा है काल पीछे से,पड़े हैं जान के लाले।
नहीं आशा बची कोई,दिलों को जो दिलाशा दे।
चले वापस घरों को हम, नहीं कोई हमें पाले।

लगा के लाख ताले भी,नहीं वो रोक पाएंगे।
चले आए जहाँ से हम, वहीं पे लौट जाएंगे।
जमाने में नहीं कोई,लगाता जो गले हमको।
भला कैसे रुकेंगे हम, पसीना क्यों बहाएंगे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
मुक्तक (प्रथम प्रयास)

Wednesday, May 20, 2020

पाती उड़ न जाए

पुरवइया चल हौले-हौले 
चूनर मेरी लहराए।
लिखती हूँ संदेश श्याम को
 कहीं पाती न उड़ जाए।

देख अधीर हुआ मन मेरा
घिरती घनघोर घटाएं।
झूम झूम तरुवर की डालें
कोई संदेश सुनाएं।
बरस रही यादों की बदली
 मन मेरा अब घबराए।
पुरवइया..

व्याकुलता बढ़ रही जिया की
भाव हृदय कुछ बोल रहे।
धीरे-धीरे हौले-हौले
मन दरवाजे खोल रहे।
कैसी यह मन की अकुलाहट
कोई भी समझ न पाए
पुरवइया..

मुरलीधर के बिन लगती हैं
 गोकुल की गलियाँ सूनी।
राधा की मुस्कान खो गई
अब व्याकुल बढ़ती दूनी।
तुम बिन कान्हा सूना गोकुल
कैसे अब रास रचाए।
पुरवइया..
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, May 16, 2020

श्रमिक पीड़ा (दोहे)

जीवन संकट में पड़ा,भाग रहे हैं लोग।
सारा जग बेहाल हैं,बड़ा विकट ये रोग।

रोजी-रोटी छिन गई,चलते पैदल गाँव।
मिला न कोई आसरा,बैठे पीपल छाँव।

खाने के लाले पड़े,और समय की मार
पैरों में छाले लिए,चले सभी  लाचार।

सूखी रोटी हाथ में,नयन बहाते नीर।
बालक आँचल में छुपा,मात बँधाए धीर।

नन्हे-मुन्ने साथ में,मात-पिता बेहाल।
पैदल घर को भागते,डरा रहा है काल।

साधन कोई है नहीं,बहुत दूर है गाँव।
घर जाने की चाह में, चलते नंगे पाँव।

डिब्बे में आटा नही,पास नहीं है दाम।
कैसी ये विपदा पड़ी, बंद हुआ सब काम।

जीवन ठहरा सा लगे, बुरा लगे आराम।
राजा होते रंक अब,खाली सब गोदाम।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

बेटी की विदा(दोहे)

पाँव में मेंहदी लगी,और महावर लाल।
पायल के घुँघरू बजे,बेंदा चमके भाल।

चूड़ी खनकी हाथ में,ओढ़े चूनर लाल।
बाबुल का घर छोड़ के,लली चली ससुराल।

माता का आँचल हटा,छूटा भाई हाथ।
बहना के आँसू बहें,रोती सखियाँ साथ।

डोली में बैठी लली,नयन भरे हैं नीर।
मात-पिता सब छूटते,मन हो रहा अधीर।

कैसी जग की रीत है,कैसा यह संसार।
बेटी को करते विदा,हल्का करते भार।

दो-दो कुल को तारती,बेटी है अनमोल।
लक्ष्मी सम आदर करो,दहेज में मत तोल।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, May 10, 2020

कलम की ताकत

कलम नहीं तलवार है,ताकत इसकी जान।
लिखती है सच ही सदा,कहना मेरा मान।

सबकी आँखें खोलती,तेज लेखनी धार।
सच्चे लेखन से सदा,करती सब पे वार।

रोके से रुकती नहीं,करे झूठ पे वार।
सच की ताकत से सदा,करती तेज प्रहार।

लिखती मन के भाव को,विरह प्रेम के गीत।
छेड़े दिल के तार को,कलम बनी है मीत।

कोरे कागज में भरे,जीवन के यह रंग।
कलम कहे कवि से यही,मुझ बिन सब बेरंग।

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Friday, May 1, 2020

गर्मी (दोहे)

नीला अम्बर देख के,बढ़ी धरा की पीर।
तपन मिटाने के लिए,बदरा लाओ नीर।

गर्मी से धरती तपी, सूखे नदियाँ ताल।
पेड़ों की छाया नहीं,होते सब बेहाल।

सूखी धरती देख के,हुआ किसान अधीर।
राह ताकते मेघ की,नयना बरसे नीर

कैसी ये विपदा पड़ी,हुई दुकाने बंद।
कूलर भी चलते नहीं,बने न कोई छंद।

गर्मी है भीषण बड़ी,लू का तीखा वार।
बदरा बरसो जोर से,सही न जाए  मार।

*अनुराधा चौहान'सुधी'*
चित्र गूगल से साभार

खुशियों की आस

भोर हुई चिड़िया चहके
पुष्प डालियों पर महके
पुरवाई हौले से डोल रही
पेड़ों पे कोयल बोल रही

अंतर्मन में उल्लास लिए
मन खुशियों की आस लिए
सोच रहा है दिन-रात यही
लौटेगा चैन जो छुपा कहीं

भोर कोई खुशियाँ ले आए
प्रकृति फिर से खिलखिलाए
मन ही मन मुरझाया-सा
मानव है कुम्हलाया-सा

कैसा जग को रोग लगा
किन कर्मो को भोग रहा
हर डगर पे बिखरे हैं काँटे 
बुरा वक़्त है मिलकर काटे

आज भले ही विपदा भोगी
जीत हमारी एक दिन होगी
यह संकट भी टल जाएगा
उजियारा जग में छाएगा

अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

रामबाण औषधि(दोहे) -2

  11-आँवला गुणकारी है आँवला,रच मुरब्बा अचार। बीमारी फटके नहीं,करलो इससे प्यार॥ 12-हल्दी पीड़ा हरती यह सभी,रोके बहता रक्त। हल्दी बिन पूजा नही...