गौरी समीप बैठे लगते बड़े निराले।
डाले गले विषैले फणिधर भुजंग काले।
काया भभूति लिपटी नंदी पिशाच संगी।
चोला बड़ा अजूबा सिर से जटा निकाले॥
जो शीश पर गिरी तो गंगा लपेट बाँधी।
सागर मथा गया तो पी विष अनेक प्याले॥
मन में शिवा जपो तो साकार शिव खड़े हैं।
डर छोड़कर सभी अब हो शंभु के हवाले॥
कैलाश पर विराजे डमरू त्रिशूल लेकर।
शिव रूप ही सभी भय मन से सदा निकाले॥
विनती महेश से जब कर जोड़ के करोगे।
काटे अनेक बंधन बाबा त्रिनेत्र वाले॥
करते कठोर तप तो खुश हो दयालु भोले।
उनकी दया मिले तो पड़ते न पाँव छाले॥
बैठी सुधी जलाती भोले समीप दीपक।
विपदा शिवा मिटाते मन के बड़े निराले॥
*अनुराधा चौहान'सुधी'✍️*