सुधी छंद
सहती पीर भारी,
वाटिका खोती अब रूप।
चुपके से अटारी,
झाँकती पूछे फिर धूप।
पूछें फिर हवाएँ,
जानकी क्यों सहती पीर।
विधना की लिखाई,
देख नयना भरते नीर।
विधि के लेख जीते,
मौन सिसकी भरती रात।
लेकर फिर परीक्षा,
क्यों नियति करती है घात।
आशा मन दबाए
सह रही सीता वनवास।
रघुकुल भी पराया,
सोच के टूटे हर आस।
रूठे चाँद तारे,
है अँधेरी काली रात।
सागर ले हिलोरे।
देख आँसू की बरसात।
मन को शांत करती,
क्षोभ की चुभती जब फाँस।
सहकर यह थपेड़े,
रूठ जाए मेरी साँस।
क्यों देना परीक्षा,
आपको है सच आभास।
फिर क्यों मानते हो,
विष बुझी झूठी अरदास।
फट जाए धरा अब,
मैं समाऊँ क्षण में राम।
फिर कारण मिटेगा,
इस धरा से मेरे नाम।
धरती काँपती फिर,
देख सीता का संताप।
रोती हैं दिशाएं,
रोक लो प्रभु अब तो पाप।
पीड़ा देख धरती,
फिर बढ़ाती अपने हाथ।
माँ की गोद आजा,
भूमिजा गरिमा के साथ।
*अनुराधा चौहान'सुधी'*
चित्र गूगल से साभार
बहुत ही खूबसूरत रचना 👌👌👌
ReplyDeleteनए छंद की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐💐💐
हार्दिक आभार सखी
Deleteवाह! नूतन छंद पर बहुत शानदार रचना सदा हुआ शिल्प ।
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएं सखी।
हार्दिक आभार सखी
Deleteआपकी रचना तो उत्कृष्ट है अनुराधा जी लेकिन शताब्दियां व्यतीत हो जान के उपरांत भी सीता की उस पीड़ा को कितने लोग अनुभव कर पाते हैं। युगों-युगों के लिए एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत कर दिया गया न्याय के नाम पर निर्दोष को ही प्रताड़ित किये जाने का। क्या सीता को आज भी न्याय मिल सका है?
ReplyDeleteसही कहा आपने... हार्दिक आभार आदरणीय।
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