*राम की व्यथा*
सुनो खगवृंद बता मुझको,प्रिय प्राण सिया दिखती किस ओर।
लता तरु क्यों चुप से दिखते,मन पीर बढ़ी छुपती अब भोर।
चकोर बना फिरता वन में,कब आस दिखे मुझको किस छोर।
कहाँ भटके वह प्राणप्रिया,वनजीव करें अति भीषण शोर।
*सीता की व्यथा*
किया छल रावण घोर प्रभो,कर जोड़ विलाप करे अतिरेक।
नहीं करनी जब पार मुझे,फिर लाँघ चली विधि फेर विवेक।
करूँ विनती अब नाथ सुनो,अब पीर सहूँ यह घोर अनेक।
करो प्रभु नाश दशानन का,अब काज करो तुम आकर नेक।
*रासलीला*
बजी मुरली जग झूम उठा,यदुनंदन छेड़ रहे जब साज।
किलोल करें खगवृंद सभी,प्रभु रास करें मन गोप विराज।
उजास खिली तम दूर हटा,नभमंडल देख रहा यह राज।
निहार रही मुख मंडल को,फिर ढाँक रहीं मुख घूँघट लाज।
घुँघरू
निनाद करे धरती नभ भी,पग में घुँघरू करते जब शोर।
मनोहर सुंदर देख छटा,वन नाच करे रजनी फिर मोर।
निशा यह पूनम भावन सी,मुख देख रहा तब चाँद चकोर।
निशांत ढले फिर सुंदर सी,नभ सूरज ले निकली तब भोर।
मुक्तहरा सवैया में 8 जगण होते हैं। मत्तगयन्द आदि - अन्त में एक-एक लघुवर्ण जोड़ने से यह छन्द बनता है; 11, 13 वर्णों पर यती होती है। देव, दास तथा सत्यनारायण ने इसका प्रयोग किया है।
121 121 121 12, 1 121 121 121 121
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
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