ठिठुरता रहा तन,
छाया है घना घन,
अलाव जलाके सभी,
ठंड दूर फेंकिए।१।
पारा रोज घट रहा,
सूर्य भी दुबक रहा,
अपने घरों में छुप,
रजाई को ओढ़िए।२।
चुभे हवाएं सुई-सी,
ठिठुरती ठंड बड़ी,
कुहासा भरी भोर में,
धूप कहाँ देखिए।३।
गरीबों पे मार पड़ी,
पड़ी कड़ाके की ठंडी,
फटी हुई कथरी में,
कैसे रात काटिए।४।
***अनुराधा चौहान***
(मनहरण घनाक्षरी)
(मनहरण घनाक्षरी)
चित्र गूगल से साभार
.. इतनी ठंड पड़ रही है कि. क्या कहूं आपकी कविता.. वर्तमान समय में बिल्कुल सही बन पड़ी है बहुत खूबसूरत लिखा
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteबहुत सार्थक हृदय स्पर्शी रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteसचमुच।बेहद खूबसूरत रचना।लाजवाब।
ReplyDeleteसहृदय आभार सखी
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब सृजन...
सहृदय आभार सखी
Deleteपारा रोज घट रहा,
ReplyDeleteसूर्य भी दुबक रहा,
अपने घरों में छुप,
रजाई को ओढ़िए।
ekdam durust farmayaa...keep safe keep warm...
sardiyon ki dhoop se gungani rchnaa
bdhaayi
हार्दिक आभार जोया जी
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