पितु वचनों के सम्मान में
भूले सुख की प्रीत को।
मैं अनुगामी बन कर प्रभो,
मानूँ रघुकुल रीत को।
हीरे मोती माटी लगें,
सूना तुम बिन महल भी।
सूने गलियारे भी पड़े,
मिटती अब हर चहल भी।
पालक बनकर मैं अवध का,
पालन में हरपल करूँ।
छाया बनकर प्रभु आपकी,
सबके मन खुशियाँ भरूँ।
थाती तो है बस आपकी,
मैं तो केवल दास हूँ।
तुम परमात्मा मेरे प्रभो,
मैं छोटी सी आस हूँ।
दे दो अब अपनी पादुका,
इनको अपने सिर रखूँ।
पूजन करके जगदीश का,
सेवा का हर सुख चखूँ।
रघुकुल की रखकर शान में,
भाई वापस जाऊँगा।
सुमिरन करके दिन रात में,
मन में तुमको पाऊँगा।
श्री राम से चरण पादुका लेने के बाद भरत श्री राम जी से कहते हैं कि "हे प्रभु वनवास की अवधि बीतने के बाद आने में एक दिन की भी देर मत करना..!"
नहीं कुछ और चाहूँ मैं,मुझे वरदान दो इतना।
रखूँगा मान रघुकुल का,समय वनवास के जितना।
बरस चौदह अवधि प्रभु बस,नहीं दिन एक बढ़ पाए।
तजूँगा प्राण पल भर में,सहूँगा पीर मैं कितना।
*अनुराधा चौहान'सुधी'*
चित्र गूगल से साभार
पालक बनकर मैं अवध का,
ReplyDeleteपालन में हरपल करूँ।
छाया बनकर प्रभु आपकी,
सबके मन खुशियाँ भरूँ।
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति
हार्दिक आभार मनोज जी।
Deleteबहुत सुंदर सृजन सखी ।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी हैं भरत जी का संवाद।
वाह, बहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार शिवम् जी
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ReplyDeleteनहीं कुछ और चाहूँ मैं,मुझे वरदान दो इतना।
रखूँगा मान रघुकुल का,समय वनवास के जितना।
बरस चौदह अवधि प्रभु बस,नहीं दिन एक बढ़ पाए।
तजूँगा प्राण पल भर में,सहूँगा पीर मैं कितना।..वाह !रघुकुल के त्याग और बलिदान की गाथा को दर्शाती सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
हार्दिक आभार जिज्ञासा जी
Deleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार दीदी
Deleteबहुत ही भावप्रधान कविता।हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर 👌
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteबड़ी मोहक रचना!!! सादर नमन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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