फ़लसफ़ा ज़िंदगी का
कुछ ऐसा रहा
खुद पर ही खुद का यक़ीन न रहा
बदलते मौसम की तरह
कुछ इस तरह बदले रिश्ते
रिश्तों के रुख पर यकीं न रहा
खूब की थी हमने सबको
समेटने की कोशिश की
अपना-पराया करने में
खुशियों का कारवां
न जाने कब गुज़र कर
यादों की किर्चों का
गुबार पीछे छोड़ गया
महक भी न पाए थे
प्यार के फूल गुलिस्ताँ में
नफ़रत की आग में
राख बना बिखर गया
दिल के किसी कोने में
कहीं ज़िंदा है यह भरोसा
लौटेगा फिर एक दिन मौसम
बहार की खुशियाँ लिए
समेट सको समेट लेना
एक बार फिर रिश्तों को
जज़्बात का तूफ़ान थमा
तो फिर लौट नहीं पाएगा
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार कविता जी
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