क्योंकि लड़के रोते नहीं
दर्द छिपा लेते मन ही मन
घर से दूर याद आती घर की
फोन करते पर कहते कुछ नहीं
छुट्टियों में जब घर आते
माँ को जी भर सताते
दो दिन में जी लेते फिर बचपन
बहन को पल-पल छेड़ते
अपना रौब जमाते
खाने में क्या बनेगा
करते रोज नई फरमाइशें
पिता से अपना तजुर्बा बता
उनसे रोज नई बातें करते
जाने के वक़्त शांत हो जाते
फिर घर की ओर
देखते नहीं हैं मुड़कर
क्योंकि लड़के रोते नहीं
आँसू पी लेते हैं भीतर ही भीतर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-12-2019) को "तार जिंदगी के" (चर्चा अंक-3538) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
हार्दिक आभार अनीता जी
Deleteलड़कों का भी पक्ष रखा है आपने लाजवाब रचना के साथ ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteमार्मिक सृजन प्रिय सखी...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर.
सादर
हार्दिक आभार सखी 🌹
Deleteघर से दूर रहने की पीड़ा को बहुत ही भावुकता से घर के प्रत्येक सदस्य के साथ एक-एक स्मृति को पीरोकर एक सुन्दर रचना के रूप में प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है आपने।
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रकाश जी
Deleteवाह!!सखी ,सुंदर सृजन !
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
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