बैठे सिगड़ी ताप,शीतलहर को झेलते।
राग रहे आलाप,दुविधा ठंडी से बड़ी।।
२
बादल की कर ओट,सूरज रूठा सा लगे।
पहने सबने कोट,शीतलहर के कोप से।।
३
शीतल लगती भोर,चुभती है ठंडी हवा।
माई सूरज ओर,बैठी गुदड़ी ओढ़ के।।
४
बैठे मिलकर संग,ठंडी भीनी धूप में।
डाटे जर्सी अंग,मफलर कानों पे चढ़ा।।
५
हवा उड़ाती होश,कुहरा झाँके द्वार से।
बैठे खोकर जोश,मोटे ताजे लोग भी।।
६
नन्हा काँपे जोर,घनी पूस की रात में।
घन बरसे घनघोर,टपके कच्ची झोपड़ी।।
७
हाथ लिए है नोन,भट्टी में आलू भुने।
पोता बैठा मौन,बाबा अलाव तापते।।
८
थर-थर काँपे हाथ,अम्बर है सिर पे खुला।
सोता है फुटपाथ,कथरी गुदड़ी ओढ़ के।।
९
सेंक रहे हैं धूप,छत के ऊपर बैठ के।
अजब बनाए रूप,टोपा मोजा को पहन।।
१०
सर्दी की शुरुआत,गाजर का हलवा बना।
करते हैं सब बात,चाय पकौड़े हाथ में।।
११
भाग रहे हैं लोग,जीवन संकट में पड़ा।
बड़ा विकट ये रोग,सारा जग बेहाल हैं।।
१२
चलते पैदल गाँव,रोजी-रोटी छिन गई।
बैठे पीपल छाँव,मिला न कोई आसरा।।
१३
बुरी समय की मार,खाने के लाले पड़े।
चले सभी लाचार,पैरों में छाले लिए।।
१४
नयन बहाते नीर,सूखी रोटी हाथ में।
मात बँधाए धीर,बालक आँचल में छुपा।।
१५
मात-पिता बेहाल,नन्हे-मुन्ने साथ में।
डरा रहा है काल,पैदल घर को भागते।।
१६
बहुत दूर है गाँव,साधन कोई है नहीं।।
चलते नंगे पाँव,घर जाने की चाह में।।
१७
पास नहीं है दाम,डिब्बे में आटा नही।
बंद हुआ सब काम,कैसी ये विपदा पड़ी।।
१८
बुरा लगे आराम,जीवन ठहरा सा लगे।
खाली सब गोदाम,राजा होते रंक अब।।
१९
रुधिर सनी है रेत,पाँवों के छाले रिसे।
मानव अब तो चेत,चीख-चीख पत्थर कहे।।
२०
बंद हुए सब काज,कोरोना के राज में।
समझ न आए राज,कैसी ये विपदा पड़ी।।
२१
जल की कीमत जान,बूँद बूँद है कीमती।
सच को ले पहचान,पानी बिन जीवन नहीं।।
२२
सभी दिवस बन जून,भीषण गर्मी से तपे।
बिन पानी सब सून,जीवन की किलकारियाँ।।
२३
सूखी जल की धार,धरती का सीना फटा।
जल जीवन का सार,आँखें अम्बर पे टिकी।।
२४
जीवन हो खुशहाल,संचय करना जल सभी।
सिर नाचेगा काल,धरती से जो जल मिटा।।
२५
शपथ उठाए आज,हरी-भरी हो ये धरा।
उत्तम करना काज,नीर बचाने के लिए।।
२६
लील रहे हैं गाँव,जंगल अब कंक्रीट के।
कहाँ मिले अब छाँव ,बूढ़े बरगद कट रहे।।
२७
जल संकट से आज,गंध वाटिका खो रही।
होगा कोई काज,बिन जल मानव का नहीं।।
२८
मधुर प्रिया मुस्कान,कुसुमित कानन बीच में।
प्रियतम का प्रिय गान,कर जाती थी मौन ही।।
२९
बेटी-चिड़िया संग,कानन में क्रीड़ा करें।
हुआ मनुज बेढंग,वे भी मर्माहत हुए।।
३०
सूखे सरिता ताल,कानन हरियाली घटी।
नाच रहा सिर काल,पर्यावरण विषाक्त है।।
३१
नाच रहा बेताल,कोरोना सिर पे खड़ा।
जकड़े सबको जाल,संकट ये सबसे बुरा।।
३२
आज समय की मार,हँसते जीवन पे पड़ी।
झेल रहा संसार,कैसी है ये आपदा।।
३३
संयम से ले काम,कठिन दौर है ये बड़ा।
मिट जाएगा नाम,कोरोना का देश से।।
३४
हाथ रखो सब साफ,दो गज की दूरी रखो।
नहीं करेगी माफ,बीमारी सबसे बुरी।।
३५
छुपकर करे प्रहार,जीवन की दुश्मन बनी।
मचता हाहाहार,पड़ी काल की मार जो।।
३६
कैसा है ये रोग,घर में बैठो तो घटे।।
कहाँ समझते लोग,भीड़ मचाने से बढ़े।।
३७
हुई दुकानें बंद, कैसी ये विपदा पड़ी।
बने नहीं अब छंद,कूलर भी चलते नहींं।।
३८
हुआ किसान अधीर,सूखी धरती देख के।
नयना बरसे नीर,अम्बर भी सूना पड़ा।।
३९
खड़ी फसल बेकार,टिड्डी दल के घात से।
बुरे समय की मार,मानव पर कैसी पड़ी।।
४०
बन जाते हैं गीत,सुंदर मन के भाव से।
मन में रखना प्रीत,प्यारा ये जीवन लगे।।
४१
आई उजली भोर,पूरब में लाली खिली।
चिड़ियाँ करती शोर,देख धूप की रोशनी।।
४२
माली देता नीर,क्यारी में महकी कली।
भँवरा हुआ अधीर,मधुरस पीने के लिए।।
४३
आँगन रही बुहार,खनकी चूड़ी मात की।
मटकी का ले भार,गोरी पनघट से चली।।
४४
सूरज चमके भाल,वसुधा पे जीवन हँसे।
जीवन हुआ निहाल,धूप सुनहरी देख के।।
४५
हुई सुहानी भोर,तिमिर हटाने के लिए।
करती भाव-विभोर,मोती जैसी ओस भी।।
४६
रहट चले खलिहान,बैलों की घंटी बजे।
रोप रहा है धान,हलधर लेकर हाथ में।।
४७
बैठी गोदी मात,बोले बोली तोतली।
हँसती सुन के बात,टुकुर-टुकुर मुख देखती।।
४८
ममता प्यार दुलार,झोली में इसके भरा।
नारी जग आधार,देवी सम पूजा करो।।
४९
नारी के ये रूप,बहना माता संगिनी।
वो घर के अनुरूप,ढल जाती हर हाल में।।
५०
मिटा धरा का ताप,बारिश की बूँदें गिरी।
दूर हुआ संताप,हलधर की पीड़ा मिटी।।
५१
मात-पिता के संग,थोड़ा समय गुजारिए।
खुशियों के वे रंग,जीवन में भरते सदा।।
५२
चाहें समय खराब,विपदा हो कितनी बुरी।
पीना नहीं शराब,मन का आपा भूल के।।
५३
खोकर के विश्वास,जीवन में मत हारना।
दिल में रखना आस,मिलता सब कुछ समय से।।
५४
जीवन की यह शाम,ढलती जाती जिंदगी।
कई अधूरे काम,करना है पूरे अभी।।
५५
समय बड़ा अनमोल,कहा बड़ों का मानिए।
बुजुर्ग कहते बोल,खोकर ये लौटे नहीं।।
५६
मानव की है आस,अभिलाषा धन संपदा।
अपनों का विश्वास,छल करके वह तोड़ता।।
५७
रख रिश्तों की नींव,प्यार और विश्वास से।
सुखी रहें सब जीव,अभिलाषा मन में यही।।
५८
भांति-भांति के लोग,सुखमय इस संसार में।
प्रभु से हुआ वियोग,पालें मन में लालसा।।
५९
मुख से बरसे नेह,मीठी वाणी बोलिए।
मन में प्रेम स्नेह, मिलजुलकर सारे रहें।।
६०
सुख की शीतल छाँव,आँचल में माँ के मिले।
अपना प्यारा गाँव,शहरों से अच्छा लगे।।
६१
बस चाहे आधार,कला कभी छुपती नहीं।
मिल जाता विस्तार,मन की आशा को जरा।।
६२
फिर भी जागे आस,चाहे कितना भी छुपा।
कलाकार की प्यास,मन के कोने में दबी।।
६३
धरती अंबर गोल,ऊपर वाले की कला।
नदिया जल अनमोल,सागर की लहरें कहें।।
६४
कागा काल समान,कोयल मीठा बोलती।
कलमकार का मान,कलम कोश की कामना।।
६५
रहूँ खोलती भेद,कलम कहे अभिमान से।
मैं कागज में छेद,धोखे से करती नहीं।।
६६
गढ़ती नवीन रूप,कला निखरती रोज ही।
जैसे आए धूप,तिमिर मिटाने के लिए।।
६७
तुझ से पैनी धार,कलम कहे तलवार से।
करती तेज प्रहार,कागज पर मैं जब चलूँ।।
६८
रोज नये आयाम,कलमकार नित ही गढ़े।
सखी लिखें घनश्याम,राधा राधा में लिखूँ।।
६९
रहती न कभी मौन,करती सच की कामना।
सच्चा झूठा कौन,देखें न कभी ये सदा।।
७०
कलाकार के हाथ,अद्भुत मूरत को गढ़े।
गौरवगाथा साथ।,महल दुमहले कह रहे।।
७१
माँ की छमता जान,माँ जैसा कोई नहीं।
देवी उसको मान,उसे न देना दुख कभी।।
७२
लेती दुख को ओढ़,माता सुख की छाँव सी।
समझो न उसे कोढ़,माता के बिन घर नहीं।।
७३
दिल पर करते वार,आँखों में आँसू दिए।
हँसकर सहती हार,ममता की मूरत सदा।।
७४
करती सुख की चाह,बेटा चाहें हो बुरा।
कभी न रखती डाह,कड़वी बातों को सहे।।
७५
माता को पहचान,ममता देती है सदा।
माँ की महिमा मान,प्रभु से ऊँचा स्थान है।।
७६
माँ जीवन आधार,मूलमंत्र ये सृष्टि का।
अपने ऊपर भार,मत समझो उसको कभी।।
७७
महकाती संसार,माँ पूजा के थाल सी,
करना न तिरस्कार,माँ से मुखको मोड़ के।।
७८
फिर भी करती प्यार,पीड़ा माँ कितनी सहे।
बड़ा ही होशियार,बालक उसका ही रहे।।
७९
रहता कोसो दूर,ममता से डर काल भी।
मद में होकर चूर,माँ को न कभी छोड़ना।।
८०
बेटे का सम्मान,माँ चाहे जग में सदा।
माँ का ही अपमान,बदले में बेटा करे।।
८१
कैसा यह संसार,बेटी लगती बोझ सी।
हलका करते भार, टुकड़े करके कोख में।।
८२
रचा महावर लाल,बेंदा चमके माथ पे।
आज चली ससुराल,घर बाबुल का छोड़ के।।
८३
बेटी माँगे प्रीत,सिमटी आँचल मात के ।
कैसी जग की रीत,मारी निर्बल बालिका।।
८४
वचन बड़े अनमोल,मीठी वाणी बोलिए।
विष जीवन मत घोल,मर जाते नाते सभी।।
८५
कैसा कलयुग राज,भूली कोयल कूक भी।
गोलमाल सब काज,धूमिल होती धूप भी।।
८६
आज धरा की पीर,तपती धरती से बढ़ी।
घन बरसाओ नीर,मेघों की छाया करो।।
८७
जल की कीमत जान,कहती है पल-पल धरा।
बूँद सोम सम मान,जीवन जीने के लिए।।
८८
संयम से ले काम,उलटी धारा समय की।
जपो राम का नाम,मन के सारे डर मिटे।।
८९
मचता हाहाहार,कोरोना के रोग से।
पड़ी समय की मार,मानव डरता देख के।।
९०
नहीं देखती काम,जनता चुनती नाम को।
भुगते तगड़ा दाम,अर्थी वचनों की उठी।।
९१
पानी जग आधार,मूलमंत्र है सृष्टि का।
मिटती जल की धार,प्रकृति के असंतुलन से।।
९२
डसे प्रदूषण नाग,विकास के इस दौर में।
बीमारी की आग,गाँव-घर में दौड़ रही।।
९३
प्रकृति रही है बोल,रोको वन अब काटना।
धरा रही है डोल,जो रोके से ना रुके।।
९४
देते शीतल छाँव,तरुवर को मत काटिए।
स्वस्थ बनाएं गाँव,प्राणवायु पावन करें।।
९५
खाते गुटखा पान,करते कचरा गंदगी।
संकट में है जान,बीमारी पाले सभी।।
९६
जहर रही हैं घोल,धुआँ उड़ाती गाड़ियाँ।
मानव करता झोल,जहरीली होती हवा।।
९७
करता कानन नाश,पेड़ों पर आरी चला।
बँधा मौत के पाश,हरियाली जड़ से मिटा।।
९८
कानन हुआ उजाड़,गंध वाटिका खो रही।
दिखे नहीं अब ताड़,पत्थर के इस शहर में।।
९९
सिमट रहे हैं आज,धरती से जंगल सभी।
सुनो प्रलय का साज,बदला ये पर्यावरण।।
१००
सूख रहे हैं ताल,वसुधा बंजर हो रही।
बड़ा बुरा है हाल,दूषित पुरवाई चले।।
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
राग रहे आलाप,दुविधा ठंडी से बड़ी।।
२
बादल की कर ओट,सूरज रूठा सा लगे।
पहने सबने कोट,शीतलहर के कोप से।।
३
शीतल लगती भोर,चुभती है ठंडी हवा।
माई सूरज ओर,बैठी गुदड़ी ओढ़ के।।
४
बैठे मिलकर संग,ठंडी भीनी धूप में।
डाटे जर्सी अंग,मफलर कानों पे चढ़ा।।
५
हवा उड़ाती होश,कुहरा झाँके द्वार से।
बैठे खोकर जोश,मोटे ताजे लोग भी।।
६
नन्हा काँपे जोर,घनी पूस की रात में।
घन बरसे घनघोर,टपके कच्ची झोपड़ी।।
७
हाथ लिए है नोन,भट्टी में आलू भुने।
पोता बैठा मौन,बाबा अलाव तापते।।
८
थर-थर काँपे हाथ,अम्बर है सिर पे खुला।
सोता है फुटपाथ,कथरी गुदड़ी ओढ़ के।।
९
सेंक रहे हैं धूप,छत के ऊपर बैठ के।
अजब बनाए रूप,टोपा मोजा को पहन।।
१०
सर्दी की शुरुआत,गाजर का हलवा बना।
करते हैं सब बात,चाय पकौड़े हाथ में।।
११
भाग रहे हैं लोग,जीवन संकट में पड़ा।
बड़ा विकट ये रोग,सारा जग बेहाल हैं।।
१२
चलते पैदल गाँव,रोजी-रोटी छिन गई।
बैठे पीपल छाँव,मिला न कोई आसरा।।
१३
बुरी समय की मार,खाने के लाले पड़े।
चले सभी लाचार,पैरों में छाले लिए।।
१४
नयन बहाते नीर,सूखी रोटी हाथ में।
मात बँधाए धीर,बालक आँचल में छुपा।।
१५
मात-पिता बेहाल,नन्हे-मुन्ने साथ में।
डरा रहा है काल,पैदल घर को भागते।।
१६
बहुत दूर है गाँव,साधन कोई है नहीं।।
चलते नंगे पाँव,घर जाने की चाह में।।
१७
पास नहीं है दाम,डिब्बे में आटा नही।
बंद हुआ सब काम,कैसी ये विपदा पड़ी।।
१८
बुरा लगे आराम,जीवन ठहरा सा लगे।
खाली सब गोदाम,राजा होते रंक अब।।
१९
रुधिर सनी है रेत,पाँवों के छाले रिसे।
मानव अब तो चेत,चीख-चीख पत्थर कहे।।
२०
बंद हुए सब काज,कोरोना के राज में।
समझ न आए राज,कैसी ये विपदा पड़ी।।
२१
जल की कीमत जान,बूँद बूँद है कीमती।
सच को ले पहचान,पानी बिन जीवन नहीं।।
२२
सभी दिवस बन जून,भीषण गर्मी से तपे।
बिन पानी सब सून,जीवन की किलकारियाँ।।
२३
सूखी जल की धार,धरती का सीना फटा।
जल जीवन का सार,आँखें अम्बर पे टिकी।।
२४
जीवन हो खुशहाल,संचय करना जल सभी।
सिर नाचेगा काल,धरती से जो जल मिटा।।
२५
शपथ उठाए आज,हरी-भरी हो ये धरा।
उत्तम करना काज,नीर बचाने के लिए।।
२६
लील रहे हैं गाँव,जंगल अब कंक्रीट के।
कहाँ मिले अब छाँव ,बूढ़े बरगद कट रहे।।
२७
जल संकट से आज,गंध वाटिका खो रही।
होगा कोई काज,बिन जल मानव का नहीं।।
२८
मधुर प्रिया मुस्कान,कुसुमित कानन बीच में।
प्रियतम का प्रिय गान,कर जाती थी मौन ही।।
२९
बेटी-चिड़िया संग,कानन में क्रीड़ा करें।
हुआ मनुज बेढंग,वे भी मर्माहत हुए।।
३०
सूखे सरिता ताल,कानन हरियाली घटी।
नाच रहा सिर काल,पर्यावरण विषाक्त है।।
३१
नाच रहा बेताल,कोरोना सिर पे खड़ा।
जकड़े सबको जाल,संकट ये सबसे बुरा।।
३२
आज समय की मार,हँसते जीवन पे पड़ी।
झेल रहा संसार,कैसी है ये आपदा।।
३३
संयम से ले काम,कठिन दौर है ये बड़ा।
मिट जाएगा नाम,कोरोना का देश से।।
३४
हाथ रखो सब साफ,दो गज की दूरी रखो।
नहीं करेगी माफ,बीमारी सबसे बुरी।।
३५
छुपकर करे प्रहार,जीवन की दुश्मन बनी।
मचता हाहाहार,पड़ी काल की मार जो।।
३६
कैसा है ये रोग,घर में बैठो तो घटे।।
कहाँ समझते लोग,भीड़ मचाने से बढ़े।।
३७
हुई दुकानें बंद, कैसी ये विपदा पड़ी।
बने नहीं अब छंद,कूलर भी चलते नहींं।।
३८
हुआ किसान अधीर,सूखी धरती देख के।
नयना बरसे नीर,अम्बर भी सूना पड़ा।।
३९
खड़ी फसल बेकार,टिड्डी दल के घात से।
बुरे समय की मार,मानव पर कैसी पड़ी।।
४०
बन जाते हैं गीत,सुंदर मन के भाव से।
मन में रखना प्रीत,प्यारा ये जीवन लगे।।
४१
आई उजली भोर,पूरब में लाली खिली।
चिड़ियाँ करती शोर,देख धूप की रोशनी।।
४२
माली देता नीर,क्यारी में महकी कली।
भँवरा हुआ अधीर,मधुरस पीने के लिए।।
४३
आँगन रही बुहार,खनकी चूड़ी मात की।
मटकी का ले भार,गोरी पनघट से चली।।
४४
सूरज चमके भाल,वसुधा पे जीवन हँसे।
जीवन हुआ निहाल,धूप सुनहरी देख के।।
४५
हुई सुहानी भोर,तिमिर हटाने के लिए।
करती भाव-विभोर,मोती जैसी ओस भी।।
४६
रहट चले खलिहान,बैलों की घंटी बजे।
रोप रहा है धान,हलधर लेकर हाथ में।।
४७
बैठी गोदी मात,बोले बोली तोतली।
हँसती सुन के बात,टुकुर-टुकुर मुख देखती।।
४८
ममता प्यार दुलार,झोली में इसके भरा।
नारी जग आधार,देवी सम पूजा करो।।
४९
नारी के ये रूप,बहना माता संगिनी।
वो घर के अनुरूप,ढल जाती हर हाल में।।
५०
मिटा धरा का ताप,बारिश की बूँदें गिरी।
दूर हुआ संताप,हलधर की पीड़ा मिटी।।
५१
मात-पिता के संग,थोड़ा समय गुजारिए।
खुशियों के वे रंग,जीवन में भरते सदा।।
५२
चाहें समय खराब,विपदा हो कितनी बुरी।
पीना नहीं शराब,मन का आपा भूल के।।
५३
खोकर के विश्वास,जीवन में मत हारना।
दिल में रखना आस,मिलता सब कुछ समय से।।
५४
जीवन की यह शाम,ढलती जाती जिंदगी।
कई अधूरे काम,करना है पूरे अभी।।
५५
समय बड़ा अनमोल,कहा बड़ों का मानिए।
बुजुर्ग कहते बोल,खोकर ये लौटे नहीं।।
५६
मानव की है आस,अभिलाषा धन संपदा।
अपनों का विश्वास,छल करके वह तोड़ता।।
५७
रख रिश्तों की नींव,प्यार और विश्वास से।
सुखी रहें सब जीव,अभिलाषा मन में यही।।
५८
भांति-भांति के लोग,सुखमय इस संसार में।
प्रभु से हुआ वियोग,पालें मन में लालसा।।
५९
मुख से बरसे नेह,मीठी वाणी बोलिए।
मन में प्रेम स्नेह, मिलजुलकर सारे रहें।।
६०
सुख की शीतल छाँव,आँचल में माँ के मिले।
अपना प्यारा गाँव,शहरों से अच्छा लगे।।
६१
बस चाहे आधार,कला कभी छुपती नहीं।
मिल जाता विस्तार,मन की आशा को जरा।।
६२
फिर भी जागे आस,चाहे कितना भी छुपा।
कलाकार की प्यास,मन के कोने में दबी।।
६३
धरती अंबर गोल,ऊपर वाले की कला।
नदिया जल अनमोल,सागर की लहरें कहें।।
६४
कागा काल समान,कोयल मीठा बोलती।
कलमकार का मान,कलम कोश की कामना।।
६५
रहूँ खोलती भेद,कलम कहे अभिमान से।
मैं कागज में छेद,धोखे से करती नहीं।।
६६
गढ़ती नवीन रूप,कला निखरती रोज ही।
जैसे आए धूप,तिमिर मिटाने के लिए।।
६७
तुझ से पैनी धार,कलम कहे तलवार से।
करती तेज प्रहार,कागज पर मैं जब चलूँ।।
६८
रोज नये आयाम,कलमकार नित ही गढ़े।
सखी लिखें घनश्याम,राधा राधा में लिखूँ।।
६९
रहती न कभी मौन,करती सच की कामना।
सच्चा झूठा कौन,देखें न कभी ये सदा।।
७०
कलाकार के हाथ,अद्भुत मूरत को गढ़े।
गौरवगाथा साथ।,महल दुमहले कह रहे।।
७१
माँ की छमता जान,माँ जैसा कोई नहीं।
देवी उसको मान,उसे न देना दुख कभी।।
७२
लेती दुख को ओढ़,माता सुख की छाँव सी।
समझो न उसे कोढ़,माता के बिन घर नहीं।।
७३
दिल पर करते वार,आँखों में आँसू दिए।
हँसकर सहती हार,ममता की मूरत सदा।।
७४
करती सुख की चाह,बेटा चाहें हो बुरा।
कभी न रखती डाह,कड़वी बातों को सहे।।
७५
माता को पहचान,ममता देती है सदा।
माँ की महिमा मान,प्रभु से ऊँचा स्थान है।।
७६
माँ जीवन आधार,मूलमंत्र ये सृष्टि का।
अपने ऊपर भार,मत समझो उसको कभी।।
७७
महकाती संसार,माँ पूजा के थाल सी,
करना न तिरस्कार,माँ से मुखको मोड़ के।।
७८
फिर भी करती प्यार,पीड़ा माँ कितनी सहे।
बड़ा ही होशियार,बालक उसका ही रहे।।
७९
रहता कोसो दूर,ममता से डर काल भी।
मद में होकर चूर,माँ को न कभी छोड़ना।।
८०
बेटे का सम्मान,माँ चाहे जग में सदा।
माँ का ही अपमान,बदले में बेटा करे।।
८१
कैसा यह संसार,बेटी लगती बोझ सी।
हलका करते भार, टुकड़े करके कोख में।।
८२
रचा महावर लाल,बेंदा चमके माथ पे।
आज चली ससुराल,घर बाबुल का छोड़ के।।
८३
बेटी माँगे प्रीत,सिमटी आँचल मात के ।
कैसी जग की रीत,मारी निर्बल बालिका।।
८४
वचन बड़े अनमोल,मीठी वाणी बोलिए।
विष जीवन मत घोल,मर जाते नाते सभी।।
८५
कैसा कलयुग राज,भूली कोयल कूक भी।
गोलमाल सब काज,धूमिल होती धूप भी।।
८६
आज धरा की पीर,तपती धरती से बढ़ी।
घन बरसाओ नीर,मेघों की छाया करो।।
८७
जल की कीमत जान,कहती है पल-पल धरा।
बूँद सोम सम मान,जीवन जीने के लिए।।
८८
संयम से ले काम,उलटी धारा समय की।
जपो राम का नाम,मन के सारे डर मिटे।।
८९
मचता हाहाहार,कोरोना के रोग से।
पड़ी समय की मार,मानव डरता देख के।।
९०
नहीं देखती काम,जनता चुनती नाम को।
भुगते तगड़ा दाम,अर्थी वचनों की उठी।।
९१
पानी जग आधार,मूलमंत्र है सृष्टि का।
मिटती जल की धार,प्रकृति के असंतुलन से।।
९२
डसे प्रदूषण नाग,विकास के इस दौर में।
बीमारी की आग,गाँव-घर में दौड़ रही।।
९३
प्रकृति रही है बोल,रोको वन अब काटना।
धरा रही है डोल,जो रोके से ना रुके।।
९४
देते शीतल छाँव,तरुवर को मत काटिए।
स्वस्थ बनाएं गाँव,प्राणवायु पावन करें।।
९५
खाते गुटखा पान,करते कचरा गंदगी।
संकट में है जान,बीमारी पाले सभी।।
९६
जहर रही हैं घोल,धुआँ उड़ाती गाड़ियाँ।
मानव करता झोल,जहरीली होती हवा।।
९७
करता कानन नाश,पेड़ों पर आरी चला।
बँधा मौत के पाश,हरियाली जड़ से मिटा।।
९८
कानन हुआ उजाड़,गंध वाटिका खो रही।
दिखे नहीं अब ताड़,पत्थर के इस शहर में।।
९९
सिमट रहे हैं आज,धरती से जंगल सभी।
सुनो प्रलय का साज,बदला ये पर्यावरण।।
१००
सूख रहे हैं ताल,वसुधा बंजर हो रही।
बड़ा बुरा है हाल,दूषित पुरवाई चले।।
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-08-2020) को "अयोध्या जा पायेंगे तो श्रीरामचरितमानस का पाठ करें" (चर्चा अंक-3783) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर दोहे
ReplyDeleteधन्यवाद बहना 🌹
Deleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteभावविभोर करता सृजन
मैंने भी कुछ लिखा है।आपका ध्यान चाहता हूँ
https://ajourneytoheart.blogspot.com/2020/08/blog-post.html
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteआ हा... आपने तो अपने सोरठों की लपेट में घर - आंगन - खाना - पीना - आस - पास - पड़ोस - हवा - पानी - बादल - मौसम सबको ले लिया... सच में गजब की पकड़ है आपकी...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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