Saturday, May 28, 2022

पिता की पीर

 

वनवास की अवधी सुनी दृग तात के बहने लगे।

सुर कैकयी कटु बोलती मन घात यह सहने लगे।१


कर जोड़कर विनती करी इस बैर को अब भूल जा।

सुत राम का अपराध क्या यह बोल दो कहने लगे।२


रख राज भी सुख साथ भी वनवास की हठ छोड़ दो।

यह लाल कोमल से बड़े तन गेरुआ पहने चले।३


सुन नार घोर अभागिनी यह पाप क्यों करती हठी।

रख लाज लाल कुटुंब की वनवास को रहने चले।४


तन प्राण भी अब त्यागते हठ छोड़ दो तुम कैकयी।

कुछ टूटता तन छूटता दृग जोर से बहने लगे।५


*अनुराधा चौहान'सुधी'✍️*

2 comments:

  1. इतना सुंदर, भावभीना गीत और उस पर एक भी टिप्पणी नहीं ! यह देखकर आश्चर्य भी हुआ और दुख भी। अनमोल गीत है यह - गोस्वामी तुलसीदास की कृतियों की श्रेणी में रखा जाने योग्य। नमन आपकी प्रतिभा को, आपके भावों को, आपके प्रयास को।

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    1. आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

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