जानकी सोचती वाटिका में खड़ी।
नाथ तुमको पता क्या कहाँ मैं पड़ी?
ढूँढते ढूँढते थक न जाना प्रभो।
राह तकते नयन रात दिन हर घडी॥
भूख लगती नहीं प्यास बुझती नहीं।
फाँस अंतस लगे आज जैसे गड़ी॥
साथ रघुनाथ के शूल भी पुष्प हैं।
काल लंका बनी है रत्न से जड़ी।
खेल विधना रचाई फँसी मीन सी।
कर रही थी प्रतीक्षा खड़ी झोपड़ी॥
द्वार रावण खड़ा भेष मुनि का बना ।
माँगता दान वो श्राप की ले छड़ी।
ढोंग समझा नहीं पार रेखा करी।
दंड मुझको मिला भूल की जो बड़ी॥
दूर रघुनाथ से प्राण व्याकुल हुए।
नैन से बह रही वेदना की झड़ी॥ ।
*अनुराधा चौहान'सुधी'✍️*
चित्र गूगल से साभार
लाजवाब सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteदिल को छू गयी रचना...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब।
हार्दिक आभार सखी।
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