Thursday, February 13, 2020

शुभाशीष

मत्तगयन्द मालिनी सवैया-मानस-211
7भगण-अन्त में दो गुरू22

भानजि लेखनि देखनि में अति लागति चाहति छाजति छेमा।
दिव्यति शिव्यति,शैवति सो "शिव"जानहु आनहु मानहु नेमा।।

सुन्दरि सुरि रची रचना रचि भेजिहिं मुरैनहिं पावन प्रेमा।
मुब्महिं मुम्बई रक्षित है धन धान्यहु जान्यहु मान्यहु "हेमा"।।

है "शिवराज"कहौं किन शब्दन गौरिहिं-शंकर प्रेम-अगाधा।
छागइ-छागइ"मालिनि"छन्दन लै गई लै मन मोहन-राधा।।

श्रीमति"याविज"रानि दुलारिसु"मातुल"के छमियो अपराधा।
लश्कर मातु-पिता तव श्री "जग-दीश" कि लाड़लि तू "अनुराधा"।।

शारद देवि सहाय करें नित शेष"दिनेश"सुधाकर आशा।
राम-सिया नित प्रेम बढ़ावहिं गौरि-गणेश-महेश दिलाशा।।

है शुभ आशिष जीउ सुहागिनि बुद्धि सनातन-धर्म अकासा।
भक्ति चतुर्दिक प्रीति परस्पर नित्यहिं पूरहिं जो"अभिलाषा"।।

रचनाकार--शिवराज सिंह कुशवाह (राजावत) मुरैना
(एम०ए०हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी)

No comments:

Post a Comment

श्रेष्ठ प्राकृतिक बिम्ब यह (दोहे)

1-अग्नि अग्नि जलाए पेट की,करे मनुज तब कर्म। अंत भस्म हो अग्नि में,मिट जाता तन चर्म॥ 2-जल बिन जल के जीवन नहीं,नर तड़पे यूँ मीन। जल उपयोगी मान...