चलाके पेड़ पे आरी,बुलाई हैं बला सारी।
कहीं सूखा कहीं पानी,पड़ी गलती हमें भारी।
मिटाके आज ये जंगल,घटाते धार पानी की।
बढ़ा है क्रोध धरती का,खड़ी बन मौत बीमारी।
कभी तूफान कहीं गर्मी,बताती रोष ये किसका।
कहीं डोले बड़े हौले,न कोई दोष है उसका।
सताया है बहुत तूने,धरा की बात अब सुन ले।
नहीं चेते प्रलय होगी,यही संदेश है इसका।
कभी अम्फान ने घेरा,किया निसर्ग अभी फेरा।
मिटे कब रोग कोरोना,डटा जग डाल के डेरा।
यही सोचे सदा मानव,विधाता मौन क्यों बैठा।
सताती है महामारी,डराता काल का घेरा।
धरा का रूप जब छीना,तभी ये चैन खोती है।
बढ़ाती रोष ये अपना,गरीबी मौन रोती है।
बिगाड़े वन सभी हमने,सजा अब रोज भोगेंगे।
धरा कसती कड़ा फंदा,न ढीली गाँठ होती है।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
बहुत सही।
ReplyDeleteपर्यावरण दिवस की बधाई हो।
हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteआपको भी हार्दिक बधाई।