भावों की बहती नदिया को
सागर सा विस्तार दिया।
उलझ रहे थे शब्द बिम्ब बिन
गीतों का आकार दिया।।
भटक रहा था लेखन मेरा
राह छंद की दिखलाई।
नवगीतों की बेल बढ़ी जब
झूम उठी मन पुरवाई।
अलंकार अब सुंदर दिखते
ऐसा फिर श्रृंगार किया।
दोहा आल्हा छंद रचे फिर
सीख गए हम चौपाई।
निर्झर भाव बहे अब मन से
संगत छंद रास आई।
जीवन से भटकाव मिटा जब
लेखन को साकार किया।।
शिल्प आपसे सीखे हमने
बने पारखी छंदों के।
करते नित अभ्यास सभी फिर
वचन दिए अनुबंधों के।
विज्ञात आपके गीतों ने
एक साहसिक काम किया।।
©® अनुराधा चौहान'सुधी'
बहुत ही सुंदर लिखा है अनुराधा जी 🙏
ReplyDeleteगुरुदेव को शत शत नमन 🙏 उनका हर कार्य बहुत प्रेरणादायक और प्रशंसनीय है।
वाह
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteअपने गुरु के लिए सुन्दर भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार जिज्ञासा जी
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