वनवासी की आस लिए क्यों,
अश्रु बहाती हो सीता।
आँख उठाकर देखो वैभव,
सब तेरा बन जा मीता।
सभी देव मुझसे डर भागे,
तीन लोक का मैं स्वामी।
सूर्य चंद्र सब झुकते आगे,
बनकर मेरे अनुगामी।
नयन उठाकर देखो सीते,
यह वैभव तेरा होगा।
अनदेखी कर पछताएगी,
आज नहीं यह सुख भोगा।
नव ग्रह सारे मेरी मुट्ठी,
डरते एक इशारे से।
मंदोदरी बने फिर दासी,
मत बहा अश्रु खारे से।
क्यों पत्थर से पटक रही सिर,
मोती माणिक सब तेरे।
कर इच्छा से स्वीकार मुझे,
यह चरण पकड़ ले मेरे।
भुजा हिलाऊँ धरती डोले,
काँप उठे अम्बर छाती।
तेरा राम तुच्छ वनवासी,
क्यों बातें समझ न आती।
तीन लोक में वैभव ऐसा,
अब तक किसी ने न देखा।
बँधी हुई थी जिस बंधन में,
काट फेंक दी वो रेखा।
सीता तेरी सुंदरता का,
मोल नहीं वनवासी को।
कण्टक पथ तुझको ले घूमे,
छोड़ दे उस विनाशी को।
रावण की माया यह भारी,
आज चरण है सब तेरे।
जीवन बगिया फूल उठेगी,
भोग महल के सुख मेरे।
अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍
चित्र गूगल से साभार
अद्भुत सृजन सखी! रावण का अहंकार।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी।
Deleteअहा, सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसुन्दर सृजन...
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