गर्म हवा जब भी लहराए।
धरती की तब तपन बढ़ाए॥
पत्थर वन की ऐसी माया।
ढूँढ़ने पर भी मिले छाया॥
रोको कटने से वन सारे।
वरना मानव जीवन हारे॥
सूखें नदियाँ ताल तलैया।
जल बिन जीवन चले न भैया॥
चटक रहा धरती का सीना।
भीषण गर्मी मुश्किल जीना॥
हर दिन पारा चढ़ता जाए।
व्याकुल मन जीवन घबराए॥
मस्ती में जब लू लहराती।
कोमल काया झुलसी जाती॥
धूप देख तब आए रोना।
ढूँढे हर कोई शीतल कोना॥
कानन मिटकर होते खाली।
काट रहे सब मिल हरियाली॥
कड़ी धूप तन को झुलझाए।
भीषण गर्मी आज रुलाए॥
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार
सामायिक समस्या पर ध्यान आकर्षित करती सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छी सामयिक रचना
ReplyDeleteभीषण गर्मी का बिहारी सतसई में भी बड़ा ही सटीक वर्णन मिलता है
बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteपर्यावरण असन्तुलन के कारण बढ़ती गर्मी पर सुन्दर सामयिक चिन्तन ।
ReplyDeleteसुन्दर, सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteमस्ती में जब लू लहराती।
ReplyDeleteकोमल काया झुलसी जाती॥
धूप देख तब आए रोना।
ढूँढे हर कोई शीतल कोना॥
वाकई इतनी भीषण गर्मी में रयही हाल है
बहुत ही सुन्दर सटीक एवं सामयिक सृजन।