Friday, April 29, 2022

मुश्किल जीना


 गर्म हवा जब भी लहराए।
धरती की तब तपन बढ़ाए॥
पत्थर वन की ऐसी माया।
ढूँढ़ने पर भी मिले छाया॥

रोको कटने से वन सारे।
वरना मानव जीवन हारे॥
सूखें नदियाँ ताल तलैया।
जल बिन जीवन चले न भैया॥

चटक रहा धरती का सीना।
भीषण गर्मी मुश्किल जीना॥
हर दिन पारा चढ़ता जाए।
व्याकुल मन जीवन घबराए॥

मस्ती में जब लू लहराती।
कोमल काया झुलसी जाती॥
धूप देख तब आए रोना।
ढूँढे हर कोई शीतल कोना॥

कानन मिटकर होते खाली।
काट रहे सब मिल हरियाली॥
कड़ी धूप तन को झुलझाए‌।
भीषण गर्मी आज रुलाए॥

©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार

6 comments:

  1. सामायिक समस्या पर ध्यान आकर्षित करती सार्थक रचना।

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  2. बहुत अच्छी सामयिक रचना
    भीषण गर्मी का बिहारी सतसई में भी बड़ा ही सटीक वर्णन मिलता है
    बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह।
    देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया।

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  3. पर्यावरण असन्तुलन के कारण बढ़ती गर्मी पर सुन्दर सामयिक चिन्तन ।

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  4. सुन्दर, सामयिक प्रस्तुति

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  5. मस्ती में जब लू लहराती।
    कोमल काया झुलसी जाती॥
    धूप देख तब आए रोना।
    ढूँढे हर कोई शीतल कोना॥
    वाकई इतनी भीषण गर्मी में रयही हाल है
    बहुत ही सुन्दर सटीक एवं सामयिक सृजन।

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